बिन मांगे मिला घर
नासमझी में मान लिये इसे अपना
भूल गए हम कि, यह है कुछ दिन का बसेरा
जब तक है लिखा, उतने दिन ही है रहना
संगृहीत करते रहे, हम न जाने क्या क्या
फिर भी पाया, कितनी और है लालसा
ए मुर्ख! चलना है तुझे अकेले
क्यों न समझा कैसे धोयेगा इतना सामान
न जाने कितना और है चलना
कितने और बसेरे है बदलने
जिस दिन दिल अनासकत होगा
और चलेगा खाली हाथ
तभी होगी यह यात्रा समाप्त
2 comments:
Your poem is very beautiful
Very true ...
Kind of written out my thoughts as well
Very happy to see that you write so well in Hindi ... I try but start fumbling soon ...
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